हमें डॉक्टर बनने के लिए बहरेपन वाली और युवतियों की आवश्यकता क्यों है

Mahrukh Zaidi  | 

24-वर्षीय डॉक्टर माहरुख जैदी कहती हैं, "मैंने कभी भी विकलांग डॉक्टर के बारे में देखा, पढ़ा या सुना नहीं था, इसलिए मैंने (गलती से) मान लिया कि डॉक्टरी की पढ़ाई मेरे लिए नहीं है।" (चित्र सौजन्य: माहरुख जैदी)

24-वर्षीय डॉक्टर माहरुख जैदी कहती हैं, "मैंने कभी भी विकलांग डॉक्टर के बारे में देखा, पढ़ा या सुना नहीं था, इसलिए मैंने (गलती से) मान लिया कि डॉक्टरी की पढ़ाई मेरे लिए नहीं है।"

बहुत से बच्चों के विपरीत जो छोटी उम्र से ही डॉक्टर बनने का सपना देखते हैं, मैंने खुद कभी डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बारे में नहीं सोचा क्योंकि मुझे नहीं लगता था कि ऐसा संभव है।

मैं दोनों कानों में गहरे बहरेपन के साथ पैदा हुई थी और केवल मशीनों की मदद से ही दुनिया को सुन सकती थी। मैंने कभी भी विकलांग डॉक्टर के बारे में देखा, पढ़ा या सुना नहीं था, इसलिए मैंने (गलती से) मान लिया कि डॉक्टरी की पढ़ाई मेरे लिए नहीं है। मुझे लगता था कि जीवन में मेरे करियर के अवसर लोगों के साथ कम से कम संपर्क वाली नौकरियों तक ही सीमित थे।

पहली बार मुझे तब एहसास हुआ कि मैं डॉक्टर बन सकती हूं जब मेरी मां मेरे विज्ञान के अध्यापक के साथ पेरंट-टीचर मीटिंग से लौटी। उसने बताया कि मेरे विज्ञान के अध्यापक ने सुझाव दिया था कि मैं इस क्षेत्र में करियर बनाने का सोचूं क्योंकि मेरे संवेदनशील व्यक्तित्व के साथ मेरे आलोचनात्मक सोच कौशल अच्छी तरह से संयोजित है। "क्या तुम डॉक्टर बनना चाहती हो?" उन्होंने मुझसे पूछा।

यह तब हुआ जब मेरे जैसे बहरेपन वाले व्यक्ति के लिए डॉक्टरी की पढ़ाई एक सोचने-योग्य करियर की तरह लगने लगी थी। मुझे ऐसा लगा कि मैं आखिरकार वह बदलाव बन सकती हूं जो मैं दुनिया में देखना चाहती हूं और दया की विरासत को पीछे छोड़ सकती हूं — विशेष रूप से उन लोगों के लिए दया जिन्हें समाज अक्सर नजरअंदाज करता है।

पहली बार मुझे तब एहसास हुआ कि मैं डॉक्टर बन सकती हूं जब मेरी मां मेरे विज्ञान के अध्यापक के साथ पेरंट-टीचर मीटिंग से लौटी। (चित्र सौजन्य: माहरुख जैदी)

मेरे बहरापन का पता 1 वर्ष की आयु में चला जब एक मेडीकल टेस्ट ने पुष्टि की कि मैं बहरी थी। मेरे माता-पिता ने तुरंत मुझे कान की मशीन पहनानी शुरू कर दी ताकि मुझे सुनने वाले समाज में वापस लाया जा सके। व्यापक भाषण और सुनने के अभ्यास के बाद जो पूरे बचपन में जारी रहा, मुझे अपने साथियों के बराबर कक्षा एक से ही मेनस्ट्रीम स्कूल में भर्ती कराया गया।

मैंने 7 और 10 साल की उम्र में अपने कॉक्लियर इम्प्लांट प्राप्त किए, जिससे बातचीत बहुत आसान हो गई। बचपन से, मैं केवल अंग्रेजी बोलती था क्योंकि डॉक्टर ने मेरे माता-पिता से कहा था कि मुझे एक भाषा पढ़ाएं क्योंकि दो या दो से अधिक भाषाएं मेरे विकास में रुकावट डाल सकती हैं। बाद के शोधों ने इसे एक मिथक साबित कर दिया और कई युवा कॉक्लियर इम्प्लांटीज़ बचपन से ही बहुभाषी रहे हैं — लेकिन मुझे अपनी मातृभाषा, हिंदी बोलना नहीं सिखाया गया। दुबई में पली-बढ़ी, मैं अक्सर फैमिली डिनर टेबल पर अपनी कल्पना की दुनिया में बेखबर रहती थी, जब हर कोई हिंदी में बातें करता था। मेरे देश और संस्कृति से यह अलगाव समय के साथ गहरा होता गया।

हालांकि, स्कूल में मैंने प्रगति की। अपने इंटरनेशनल स्कूल में, मैं कक्षा में सबसे आगे बैठती थी और अपने शिक्षकों को एक FM माइक्रोफोन देती था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मैंने प्रत्येक निर्देश को स्पष्ट रूप से सुन लिया है। मैं एक हाई अचीवर (उच्च उपलब्धि हासिल करने वाला व्यक्ति) थी और अक्सर मॉडल यूएन जैसी पाठ्येतर (एक्स्ट्राकरिक्यलर) गतिविधियों में भाग लेती थी। मैंने अंततः तीन विज्ञानों और एक अनिवार्य द्वितीय भाषा (स्पैनिश) के कठिन संयोजन को लेने के बाद भी कुल 41/45 अंकों (उच्चतम अंकों में से एक) के साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर के डिप्लोमा कार्यक्रम से ग्रैजुएशन किया।

अपने इंटरनेशनल स्कूल में, मैं कक्षा में सबसे आगे बैठती थी और अपने शिक्षकों को एक FM माइक्रोफोन देती था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि मैंने प्रत्येक निर्देश को स्पष्ट रूप से सुन लिया है। (चित्र सौजन्य: माहरुख जैदी)

अपने अधिकांश साथियों की तरह यू.एस. या यू.के. में उच्च शिक्षा जारी रखने का चयन करने के बजाय, मैंने डॉक्टरी पढ़ने के लिए अपनी मातृभूमि वापस जाने का फैसला किया। हिन्दी न बोलने से मुझे जिस अलगाव का अनुभव हुआ, उसके बावजूद मेरा दृढ़ विश्वास है कि देश की सेवा करना हर किसी का कर्तव्य है। हालाँकि, भारत जाना एक सांस्कृतिक झटका था और कठिन शैक्षणिक कार्यक्रम को संतुलित करते हुए भाषा बोलना सीखना कठिन था। सुनने की थकान मुझे दिन के अंत में बेहद थका देती थी, और पूरा समय बातचीत को डिकोड करने की कोशिश में लगता था। मैं शब्दों के सूक्ष्म उच्चारण के साथ लगातार संघर्ष करती रही और ज्यादातर समय अनसुनेपन, गलतफहमी या आवाजहीनता को महसूस करती थी।

जब वैश्विक महामारी का प्रकोप हुआ और मास्क लगाना आम बात हो गई, तो ऐसा लगा कि मुझे डॉक्टर बनने की राह में एक और बाधा से जूझना होगा। मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए जो चेहरे के संकेतों और होंठों को पढ़ने पर भरोसा करता है — विशेष रूप से हिंदी सीखते समय — COVID-19 संकट के दौरान बातचीत करना एक चुनौती बन गई थी। चेहरे के मास्क में आवाजें दब जाती थीं और किसी से अपना मास्क हटाने के लिए कहना ठीक नहीं था, इसलिए मैं या तो अपने कानों से अधिक काम लेती या अपने आप में सिमट जाती। जब हताशा असहनीय हो गई, तो मैंने अपने अंदर उबल रही भावनाओं का सामना करने के लिए कविता का इस्तेमाल किया। मैंने अपनी कविताओं को उन मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया पर साझा किया जो बहरे और कम सुनने वाले व्यक्ति अनुभव करते हैं। 

इस समय, मैं HearBuds, जो साथी कॉक्लियर इम्प्लांटीज और हियरिंग एड उपयोगकर्ताओं का एक समूह है, के संपर्क में आई जो अपने बहरेपन की पहचान को सम्मान के बैज की तरह गर्व से पहनते हैं। उनका सोशल मीडिया पेज, संबंधित वीडियो और पोस्ट से भरा हुआ है जो हमारे उन संघर्षों और निराशाओं को दर्शाता है जो विकलांगता की समझ की सामान्य कमी के कारण होती हैं। मुझे अनुरूप बनाने में मदद करने के बजाय, उन्होंने मुझे अद्वितीय बने रहने और अपने और दूसरों का समर्थन करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनसे, मैंने सबसे बुरे दिनों में भी अपना ढांढस बंधाने के लिए समान विचारधारा वाले लोगों के समुदाय के होने का महत्व जाना।

विकलांग डॉक्टर अपने रोगियों की जरूरतों और प्राथमिकताओं की एक अनूठी समझ और दृष्टिकोण को सामने लाते हैं। मेडिकल कॉलेजों में एक्सेस और अकोमोडेशन की मांग करके, हम न केवल खुद का और अपने बहरेपन की पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि हम मरीजों को उनके खुद के लिए वकालत करने के लिए प्रोत्साहित भी कर सकते हैं।
— माहरुख जैदी

उनके समर्थन और मेरे दृढ़ संकल्प के साथ, मैंने 2020 में हिंदी में अच्छे प्रवाह के साथ मेडिकल स्कूल से ग्रैजुएशन पूरा किया। इस साल मैं, भारत के शीर्ष मेडिकल कॉलेजों में से एक, लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज में प्रसूति और स्त्री रोग (Obstetrics and Gynaecology) में डॉक्टर ऑफ मेडिसिन और मास्टर ऑफ साइंस (MD/MS) की पढ़ाई शुरू करूंगी। मैं भारत में विकलांग डॉक्टरों और हमारे अधिकारों का समर्थन करने के लिए एक समुदाय बनाने की भी योजना बना रही हूं। विकलांग डॉक्टर अपने रोगियों की जरूरतों और प्राथमिकताओं की एक अनूठी समझ और दृष्टिकोण को सामने लाते हैं। मेडिकल कॉलेजों में एक्सेस और अकोमोडेशन की मांग करके, हम न केवल खुद का और अपने बहरेपन की पहचान का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि हम मरीजों को उनके खुद के लिए वकालत करने के लिए प्रोत्साहित भी कर सकते हैं।

जब मैं बड़ी हो रही थी, तो मैंने कोई विकलांग डॉक्टर नहीं देखा था। आत्म-समर्थन और आत्मविश्वास के माध्यम से, मैं कहानी को बदल रही हूं ताकि हर लड़की जो बहरेपन से पीड़ित है, डॉक्टरी की पढ़ाई को अपने लिए करियर के रूप में देख सके।

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Meet the Author
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Mahrukh Zaidi

(she/her) is a 24-year-old doctor currently pursuing her post-graduation degree in obstetrics and gynaecology from Lady Hardinge Medical College in Delhi, India. She writes poetry in her free time and is an extrovert who loves listening to other people share their views on the world — with the aid of her cochlear implants!